दशहरा पर देव के रूप में होती है रावण की पूजा








वर्ष में एक बार लगता है मेला 




















बुराई का प्रतीक मानकर जहां पूरे देश में दशहरा पर्व पर रावण दहन किया जाएगा। वहीं बैतूल जिले के छतरपुर में रावण को देव के रूप में पूजा जाएगा।दरअसल छतरपुर पंचायत में करीब 2 हजार फीट की ऊंची पहाड़ी पर रावणदेव का मंदिर है। वर्ष 2012 में मंदिर निर्माण हुआ है। जबकि पहाड़ी पर वर्षों से रावणदेव स्थान है। जहां पर हर साल दशहरा पर पूरे गांव के लोग पहुंचकर पूजन करते हैं। खासबात यह है कि खेत में जुताई करने से पहले और फसल तैयार होने पर सबसे पहले रावणदेव को चढ़ाई जाती है। गांव के सबसे बुजुर्ग 92 वर्षीय छलकू सरियाम बताते हैं पहाड़ी पर देव स्थान मेरे जन्म से पहले से हैं। उन्होंने बताया हर शुभ कार्य करने से पहले रावणदेव को पूजा जाता है। ताकि कार्य में कोई बाधा उत्पन्न नहीं हो। साल में एक बार फरवरी या फिर अप्रैल माह मंदिर की पहाड़ी के नीचे मेला लगता है। जहां पर बैतूल जिला ही नहीं। बल्कि प्रदेश भर से आदिवासी समाज के लोग पूजन करने आते हैं। गांव के रामदास वट्टी बताते हैं कि रावणदेव का मंदिर इतना प्रसिद्ध है कि यहां देश के कई प्रांतों के लोग पूजन करने आते हैं।


दशहरे पर होगी विशेष पूजा


छतरपुर पंचायत में चार गांव शामिल है। सभी गांव में आदिवासी परिवारों की संख्या 95 फीसद से अधिक है। यहां के ग्रामीण पूरे 9 दिनों तक दुर्गा पूजन करते हैं और दशहरे पर रावण को भी देव के रूप में पूजते हैं। हर साल गांव में मां दुर्गा की प्रतिमा स्थापित की जाती है। वहीं खेड़ापति मंदिर में सभी देवी पूजन करते हैं। पंचायत के केरिया गांव में धूमधाम से मां दुर्गा की प्रतिमा स्थापित की गई है। उधर रावणदेव के मंदिर में पूरे 9 दिनों तक ज्योत जलाकर ग्रामीण पूजा करते हैं।


पूरी होती है मनोकामनाएं


गांव के बुजुर्ग बताते है कि रावणदेव को पूजने से गांव पर कोई विपत्ति नहीं आती। जब देश गुलाम था। तब जंगल सत्याग्रह के महानायक गंजन सिंह शीलूकर रावणदेव को पूजते थे और वहीं पर तपस्या करते थे। इसी से अंदाजा लगा सकते हैं कि छतरपुर पंचायत में देव स्थान कब से है। उन्होंने बताया 1970 में गांव में महामारी आई थी। एक पखवाड़ा में 20 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई थी। इसके बाद पूरे गांव के लोगों ने देव स्थान पर पहुंचकर रावण की पूजा की और मन्नते मांगें तब से गांव में दोबारा महामारी नहीं फैली। ग्रामीण बताते हैं कि पहले पहाड़ पर स्थित देव स्थान पर पूजन सामग्री सोने की हुआ करती थी। जो धीरे-धीरे गायब हो गई। पूर्वज बताते थे कि जब गांव के लोगों के पास कुछ नहीं होता था। भुखमरी की स्थिति रहती थी। तब रावणदेव को पूजने पर मन्नते पूरी होती थी। तब से मान्यता है कि रावणदेव को जिसने पूजा वह कभी खाली हाथ नहीं लौटा। यही वजह है किशहरी क्षेत्र के कई बड़े लोग आज भी रावणदेव को पूजने जाते हैं।












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