भारत ने आरसीईपी से बाहर रहने का फैसला किया है और पहली नजर में कुछ आलोचक इसे चीन के दबदबे के तौर पर देख रहे हैं। हालांकि, भारत के इस फैसले के पीछे घरेलू आर्थिक परिस्थितियों के साथ ही कुछ दूरगामी कारण भी हैं।
इंद्राणी बागची, नई दिल्ली
केंद्र सरकार ने फिलहाल रिजनल कॉम्प्रहेन्सिव इकनॉमिक पार्टनरशिप से फिलहाल दूर रहने का फैसला किया है। आरसीईपी के कुछ आर्थिक समीकरण हैं, लेकिन यह भारत की जियोपॉलिटिकल महत्वाकांक्षा को चोट पहुंचा सकती है। पहली नजर में ऐसा लग सकता है कि यहां पर चीन को बड़ी जीत मिली है। चीन के व्यापार और सप्लाइ चेन नेटवर्क जो आसियान से जुड़ा है और अब पेइचिंग का प्रभुत्व एशिया में और बढ़ेगा।
- भारत ने RCEP से बाहर रहने का फैसला कुछ मांगों के पूरी नहीं होने के आधार पर किया
- भारत के इस फैसले को एशिया में चीन के दबदबे के और बढ़ने के संकेत के तौर पर देखा जा रहा
- विशेषज्ञों का कहना है कि भारत ने यह फैसला घरेलू अर्थव्यवस्था को ध्यान में रखकर किया
- डॉनल्ड ट्रंप की ही तरह एशिया में भारत का फोकस अधिकतम द्विपक्षीय संबंधों पर जोर देने की है
- कार्नेज एनडाउमेंट फॉर इंटरनैशनल पीस (सीईआईपी) के वरिष्ठ अधिकारी फेजनबाम ने भी इस फैसले के तुरंत बाद ट्वीट किया। उन्होंने लिखा, 'भारत ने आरसीईपी से दूर रहने का फैसला किया। इसका सीधा मतलब है कि हमारे पास अब 2 बड़े ट्रेड और इनवेस्टमेंट ब्लॉक टीपीपी और आरसीईपी होंगे। इस आर्थिक क्षेत्र के पैमाने और नियमों को नियंत्रित करने में अब न तो अमेरिका और न ही भारत का कोई हस्तक्षेप होगा। अमेरिका और भारत के बीच में अब एक नई चीज कॉमन है, लेकिन उसे अच्छा संकेत नहीं कह सकते। टीपीपी और आरसीईपी से दोनों ही देश बाहर हैं। अब हम ऐसे दौर में है जहां पैन एशियन नियमों/ मानकों में इंडो का हिस्सा नहीं है। क्या इंडो पैसेफिक अब भी प्रासंगिक है जब उसमें उसका (भारत) का हिस्सा ही नहीं हो।
- भारत के फैसले का दूसरे देशों पर भी असर
आरसीईपी से बाहर रहने का फैसला भारत ने आखिरी वक्त में किया है। आरसीईपी को लेकर पिछले काफी महीनों से सरकारी महकमें में खासी चर्चा हो रही थी। आखिरी क्षण में समझौते से अलग होने का कोई बहुत सकारात्मक संदेश क्षेत्र में जाने की उम्मीद नहीं की जा सकती है। इस फैसले से भारत के इंडो-पेसैफिक क्षेत्र में रणनीति पर भी प्रभाव पड़ सकता है क्योंकि अब व्यापार वार्ता टेबल पर भारत की भागीदारी नहीं होगी। आरसीईपी के कुछ सदस्य देशों के लिए अब भारत तक पहुंच इस फैसले के बाद मुश्किल हो सकती है और इसका दूरगामी असर पड़ सकता है। - एशिया में द्विपक्षीय संबंधों पर जोर देगा भारत
भारत आसियान और एफटीए का अभी भी सक्रिय सदस्य है, लेकिन साउथ कोरिया और थाइलैंड जैसे देशों के साथ संबंधों को लेकर फिर से बातचीत और शर्तों पर सहमति की प्रक्रिया शुरू करनी होगी। वरिष्ठ सूत्रों का कहना है कि एशिया में भारत की प्राथमिकता अधिक से अधिक द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने पर है। अमेरिका में डॉनल्ड ट्रंप भी द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने पर ही जोर दे रहे हैं।
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आरसीईपी में भारत की भागीदारी के लिए कई देश थे उत्सुक
आरसीईपी में भारत की भागीदारी की उम्मीद आसियान के सभी सदस्य देश कर रहे थे। जापान भी खास तौर पर उम्मीद कर रहा था कि भारत आरसीईपी का सदस्य बनेगा। जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने निजी तौर पर पीएम मोदी से मुलाकात कर उन्हें आरसीईपी का सदस्य बनने के लिए प्रोत्साहित किया था। दूसरे आसियान देश भी भारत की भागीदारी की उम्मीद खास तौर पर कर रहे थे ताकि चीन के दबदबे को संतुलित किया जा सके।
RCEP पर भारत सरकार 7 साल से कर रही थी काम
आरसीईपी के लिए भारत पिछले 7 साल से काम कर रहा था और उनमें से भी पिछले 5 साल से तो खुद मोदी सरकार ही इस वार्ता को आगे बढ़ा रही थी। आरसीईपी को लेकर सरकार की कुछ आशंकाएं थीं और सालों से उन पर काम भी चल रहा था। आरसीईपी में कुछ मोलभाव की भी कोशिश की गई ताकि भारतीय हितों को धक्का न पहुंचे। हालांकि, इस बीच वैश्विक अर्थव्यवस्था के रंग बदल गए और भारतीय अर्थव्यवस्था अब खुद ही संघर्ष के दौर में है। घरेलू मोर्चे पर अर्थव्यवस्था की मुश्किलों, व्यापार और निवेश की संभावनाओं को देखते हुए भारत ने यह फैसला किया।
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